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Friday, September 23, 2011

Mahalakshmi Stuti by Indra from Vishnu Puran


श्री महालक्ष्मी स्तोत्रं



श्रीगणेशाय नमः।

सिंहासनगतः शक्रः सम्प्राप्य त्रिदिवं पुनः । देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां ततः १॥

तदनन्तर इन्द्रने स्वर्गलोकमें जाकर फिरसे देवराज्यपर अघिकार पाया और राजसिंहासनपर आरूढ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मीजीकी इस प्रकार स्तुति की।

इन्द्र उवाच

नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम । श्रियमुनिन्द्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम् २॥

सम्पूर्ण लोककी जननी, विकसित कमलके सदृश नेत्रोवाली, भगवान् विष्णुके वक्ष:स्थलमे विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवीको मैं नमस्कार करता हू

पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियाम्यहम ३॥

कमल ही जिनका निवासस्थान है, कमल ही जिनके कर-कमलोमे सुशोभित है, तथा कमल-दलके समान ही जिनके नेत्र है उन कमलमुखी कमलनाभ-प्रिया श्रीकमलादेवीकी मै वन्दना करता हूँ।


त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी । सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ४॥

हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो। स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकीको पवित्र करनेवाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो।


यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने । आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ५॥

हे शोभने ! यज्ञ-विद्या (कर्म-काण्ड), महाविद्या (उपासना) और गुह्यविद्या (इन्द्रजाल) तुन्ही हो तथा हे देवी ! तुम्ही मुक्ति-फल-दायिनी आत्मविद्या हो।


आन्वीक्षिकी त्रयीवार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च । सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम ६॥

हे देवि ! आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता (शिल्पवाणिज्यादि) और दण्डनीति (राजनिति) भी तुम्ही हो।तुमर्ह अपने शान्त और उग्र रूपोसे यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है।


का त्वन्या त्वमृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः । अध्यास्ते देवदेवस्य योगचिन्त्यं गदाभृतः ७॥

हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान् गदाधरके योगिजन-चिन्तित सर्वयज्ञमय शरीरका आश्रय पा सके।


त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम् । विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम ८॥

हे देवी ! तुम्हारे छोड देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राप हो गयी थी; अब तुम्हीने उसे पुन: जीवन-दान दिया है।

दाराः पुत्रास्तथाऽऽगारं सुहृद्धान्यधनादिकम । भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम ९॥

हे महाभागे ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, थान्य तथा सुहद् ये सब सदा आपहीके दृष्टिपातसे मनुष्योको मिलते है।


शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम । देवि त्वदृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम ॥१०॥

हे देवी ! तुम्हारी कृपा-दृष्टिके पात्र पुरुषोके लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रु-पक्षका नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नही है।


 
त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता । त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम ॥११॥

तुम सम्पूर्ण लोकोकी माता हो और देवदेव भगवान् हरि पिता हेँ।हे मात: ! तुमसे और श्रीविष्णुभगवान्से यह सकल चराचर जगत् व्याप्त है।


मनःकोशस्तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम । मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि १२॥

हे सर्वपावनि, मातेश्वरी ! हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशु-शाला), गृह, भोगसामग्री, शरीर और स्त्री आदिको आप कभी न त्यागे अर्थात् इनमें भरपूर रहे।


मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गान् मा पशून्मा विभूषणम । त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षः स्थलाश्रये १३॥

अयि विष्णुवक्ष: स्थल निवासिनि ! हमारे पुत्र, सुहद, पशु और भूषण आदिको आप कभी न छोडे।


सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः । त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥१४॥

हे अमले ! जिन मनुष्योको तुम छोड देती हो उन्हे सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते है।


त्वया वलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः । कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥१५॥

और तुम्हारी कृपा-दृष्टी होनेपर तो गुणहीन पुरूष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदिसे सम्पन्न हो जाते है।


स श्लाघ्यः सगुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान । स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ॥१६॥

हे देवि ! जिसपर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्घभाग्य है, वही कुलोन और बुद्धिमान् है तथा वही शुरवीर और पराक्रमी है।


सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः । पराङ्गमुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥१७॥

हे विष्णुप्रये ! हे जगजन्ननि ! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि शभी गुण तुरन्त अवगुणरूप हो जाते है।


 
न ते वर्णयितुं शक्ता गुणाञ्जिह्वाऽपि वेधसः । प्रसीद देवि पद्माक्षि माऽस्मांस्त्याक्षीः कदाचन १८॥
हे देवि ! तुम्हारे गुणोंका वर्णन करनेमे तो श्रीव्रह्माजीकी रसना भी समर्थ नही है। [फिर मैं क्या कर सकता हुँ?] अत: हे कमललयने ! अब मूझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी न छोडो।

इति श्रीविष्णुपुराणे महालक्ष्मी स्तोत्रं सम्पूर्णम्॥


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