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Wednesday, July 13, 2011

Ganesh (Ganapati) Stava गणपतिस्तवः

गणपतिस्तवः

श्रीगणेशाय नमः ॥

ऋषिरुवाच ॥
Garga Rishi Spoke thus:

अजं निर्विकल्पं निराहारमेकं निरानन्दमानंदमद्वैतपूर्णम् ।
परं निर्गुणं निर्विशेषं निरीहं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम् ॥१॥
Let us worship Lord Ganesha, the one who is unborn, beyond imagination, without definite form, beyond happiness, the absolute happiness, the one hand only one, the best among the best, without material qualities, easily obtainable desireless and the form of the Supreme.

गुणातीतमानं चिदानंदरूपं चिदाभासकं सर्वगं ज्ञानगम्यम् ।
मुनिध्येयमाकाशरूपं परेशं परब्रह्मरूपं गणेश भजेम् ॥२॥
Let us worship Lord Ganesha, the one who is transcendental to the material modes of nature, the form of the supreme happiness, one who can be experienced through the mind, the all the pervading, one who can be approached through knowledge, meditated by sages, the form of the sky, the best of all and the form of the Supreme.

जगत्कारणं कारणज्ञानरूपं सुरादिं सुखादिं गुणेशं गणेशम् ।
जगद्व्यापिनं विश्ववंद्यं सुरेशं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम् ॥३॥
Let us worship Lord Ganesha, the one who us the cause for the existence of the Universe and the knowledge, Premier of the Gods, primal happiness, Lord of qualities, Lord of Deva group, one who pervades through the Universe, worshipped by the Universe, Lord of the Gods and the one who symbolizes the Supreme.

रजोयोगतो ब्रह्मरूपं श्रुतिज्ञं सदा कार्यसक्तं ह्रदाऽचिंत्यरूपम् ।
जगत्कारणं सर्वविद्यानिधानं परब्रह्मरूपं गणेशं नताः स्मः ॥४॥
Let us bow down to Lord Ganesha, the one who is beyond passion, the form of the Creator, knower of the Vedas, always with the actions, the form that is inconceivable by heart, cause for the existence of the Universe, responsible for all knowledge and the one who symbolizes the Supreme.

सदा सत्ययोग्यं मुदा क्रीडमानं सुरारी न्हरंतं जगत्पालयंतम् ।
अनेकावतारं निजज्ञानहारं सदा विश्वरूपं गणेशं नमामः ॥५॥
Let us salute Lord Ganesha, the one who is manifestation of the truth, blissful, appeased by the activities of people, one who is victorious over demons, governs the Universe, who takes many incarnations, carriers the supreme knowledge and the form of Vishwarupa.

तपोयोगिनं रुद्ररूपं त्रिनेत्रं जगद्धारकं तारकं ज्ञानहेतुम् ।
अनेकागमैः स्वं जनं बोधयंतं सदा सर्वरूपं गणेशं नमामः ॥६॥
Let us salute Lord Ganesha, controller of tamas, the form of destruction, one who has three eyes, destructor of the Universe, the carriers across the bonds of life, the cause of knowledge, preaches to many people who see Him and the form of everything (Shiva).

नमः स्तोमहारं जनाज्ञानहारं त्रयीवेदसारं परब्रह्मसारम् ।
मुनिज्ञानकारं विदूरे विकारं सदा ब्रह्मरूपं गणेशं नमामः ॥७॥
Let is salute Lord Ganesha, the one who removes tamas qualities, removes ignorance of people, the essence of the three Vedas, the essence of the Supreme, cause of knowledge in the sages, looks misshaped form distant and always the form of the Supreme.

निजैरोषधीस्तर्पयंतं कराद्यैः सुरौघान्कलाभिः सुधास्त्राविणीभिः ।
दिनेशांशुसंतापहारं द्विजेशं शशांकस्वरूप गणेशं नमामः ॥८॥
Let us salute Lord Ganesha, the one who makes the plants happy by his rays, one who makes Gods happy by the tarpana of streams of nectar, one who cools down the heat of the Sun, the best of the Brahmins and the one who us the form of the Moon.

अनेकक्रियानेकशक्तिस्वरूपं सदा शक्तिरूपं गणेशं नमामः ॥९॥
प्रधानस्वरूपं महत्तत्वरूपं धराचारिरूपं दिगीशादिरूपम् ।
Let us salute Lord Ganesha, the one who is the form of light, the form of the sky, the form of wind, the cause for changes, one who supports the arts, cause for many activities, form of strength and the form of Shakti.

असत्सत्स्वरूपं जगद्धेतुरूपं सदा विश्वरूपं गणेशं नताः स्मः ॥१०॥
त्वदीये मनः स्थापयेदंघ्रियुग्मे स नो विघ्नसंघातपीडां लभेत ।
Let us salute Lord Ganesha, the one who is important form of the nature, great form of qualities, wanders over the Earth, form of Lord of the directions, form of the existent and the non-existent, the cause for the Universe and always the form of the Universe.

लसत्सूर्यबिम्बे विशाले स्थितोऽयं जनो ध्वांतपीडा कथं वा लभेत ॥११॥
वयं भ्रामिताः सर्थथाऽज्ञानयोगादलब्धास्तवांघ्रि बहून्वर्षपूगान् ।
People who prostrate to your feet would be freed from obstacles. The one who is like the shining Sun who is vast, when you are present, how would people be subjected to darkness?

इदानीमवाप्तास्तवैव प्रसादात्प्रपन्नान्सदा पाहि विश्वम्भराद्य ॥१२॥
We, who are illusioned, always linked with ignorance, we have bowed down to your feet. The Supreme one, the one who has the manifestation of the Universe, it is because of your grace your feet are found, protect us.

एवं स्तुतो गणेशस्तु संतुष्टोऽभून्महामुने ।
कृपया परयोपेतोऽभिधातुमुपचक्रमे ॥१३॥
O Greate Sage! One who prays Lord Ganesha in the above mentioned way, is happy. By His grace, I begin to pray Him to obtain the Supreme knowledge.
॥इति श्रीमद्गर्गमहर्षिप्रणीतो गणपतिस्तवः सम्पूर्णः ॥
Thus, ends the prayer to Lord Ganesha as recited by Garga Rishi.



Sunday, August 9, 2009

Yamuna Kwach यमुना कवच

यमुना कवच
Yamuna Kwach

यमुना कवच

सौभरि उवाच:

ध्यानम्

यमुनायाश्च कवचं सर्वक्षाकरं नृणाम् । चतुष्पदार्थदं साक्षाच्छृणु राजन् महामते ॥१॥
कृष्णां चतुर्भुजां पुण्डरीकदलेक्षणाम् । रथस्थां सुन्दरीं ध्यात्वा धारयेत कवचं तत: ॥२॥

कवच

स्नात: पूर्वमुखो मौनी कृतसंध्य: कुशासने । कुशैर्बद्धशिखो विप्र: पठेद् वै स्वस्तिकासन:॥३॥
यमुना मे शिर: पातु कृष्णा नेत्रद्वयं सदा । श्यामा भ्रूभङ्गदेशं च नासिकां नाकवासिनी ॥४॥
कपोलौ पातु मे साक्षात् परमानन्दरूपिणी । कृष्णवामांससम्भूता पातु कर्णद्वयं मम ॥५॥
अधरौ पातु कालिन्दी चिबुकं सूर्यकन्यका । यमस्वसा कन्धरां च हृदयं मे महानदी ॥६॥
कृष्णप्रिया पातु पृष्ठं तटिनी मे भुजद्वयम् । श्रोंणीतटं च सुश्रोणी कटिं मे चारुदर्शना ॥७॥
ऊरुद्वयं तु रम्भोरूर्जानुनी त्वङ्घ्रिभेदिनी । गुल्फौ रासेश्वरी पातु पादौ पापापहारिणी ॥८॥
अन्तर्बहिरधश्चोर्ध्वं दिशासु विदिशासु च । समन्तात् पातु जगत: परिपूर्णतमप्रिया ॥९॥

फलश्रुति

इदं श्रीयमुनायाश्च कवचं पामाद्भुतम् । दशवारं पठेद् भक्त्या निर्धनो धनवान् भवेर् ॥१०॥
त्रिभिर्मासै: पठेद् धिमान् ब्रमाचारी मिताशन: । सर्वराज्याधिपत्यत्वं प्राप्यते नात्र संशय: ॥११॥
दशोत्तशतं नित्यं त्रिमासावधि भक्तित: । य: पठेत् प्रयतो भूत्वा तस्य किं किं न जायते ॥१२॥
य: पठेत् प्रातरुत्थाय सर्वतीर्थफलं लभेत् । अन्ते व्रजेत् परं धाम गोलोकं योगिदुर्भम् ॥१३॥

(गर्गसंहिता, माधुर्य खण्ड, १६। १२-१४)

॥ इति श्रीगर्गसंहिता माधुर्यखण्डे श्रीसौभरि-मांधाता संवादे यमुना कवचम् सम्पूर्णम् ॥


Translation

सौभरि बोले

ध्यान

महामते नरेश ! यमुनाजीका कवच मनुष्योकी सब प्रकारसे सक्षा कसनेवाला तथा साक्षात् चारों पदार्थोंको देनेवाला है, तुम इसे सुनो – यमुनाजीके चार भुजाएँ है । वे श्यामा (श्यामवर्णा एवं षोडश वर्षकी अवस्थासे युक्त) है । उनके नेत्र प्रफल्ल कमलदलके समान सुन्दर एवं विशाल है । वे परम सुन्दर है और दिव्य रथपर बैठी हुई हैं । उनका ध्यान करके कवच धारण करे ॥

स्नान करके पूर्वाभिमुख हो मौनभावसे कुशासनपर बैठे और कुशोंद्वारा शिखा बाँधकर संध्या-वन्दन करनेके अनन्तर ब्रह्मण (अथावा द्विजमात्र) स्वस्तिकासनसे स्थित हे कवचका पाठ करे ।

कवच

यमुना मेरे मस्तककी रक्षा करे और कृष्णा सदा दानों नेत्रोंकी । श्यामा भ्रूभंग-देशकी और नाकवासिनी नासिकाकी रक्षा करें । साक्षात् परमानन्दरूपिणी मेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें । कृष्णवामांससम्भूता (श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई वे देवी) मेरे दोनों कानोंका संरक्षण करें । कालिन्दी अधरोंकी और सूर्यकन्या चिबुक (ठोढी) की रक्षा करें । यमस्वसा (यमराजकी बहिन) मेरी ग्रीवाकी और महानदी मेरे हृदयकी रक्षा करें । कृष्णप्रिया पृष्ठ –भागका और तटिनी मेरी दोनों भुजाओंका रक्षण करें । सुश्रोणी श्रोणीतट (नितम्ब) की और चारुदर्शना मरे कटिप्रदेशकी रक्षा करें । रम्भरू दोनों ऊरुओं (जाँघो) की और अङ्घ्रिभेदिनी मेरे दोनों घुटनोंकी रक्षा करें । रासेश्वरी गुल्फों (घट्ठयों) का और पापापहारिणी पादयुगलका त्राण करें । परिपूर्णतमप्रिया भीतर-बहार, नीचे-ऊपर तथा दिशाओं और विदिशाओंमें सब ओरसे मेरी रक्षा करें ॥

फलश्रुति

यह श्रीयमुनाका परम अद्भुत कवच है । जो भक्तिभावसे दस इसका पाठ करता है, वह निर्धन भी धनवान् हो जाता है । जो बुद्धिमान् मनुष्य ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक परिमित आहारका सेवन करते हुए तीन मासतक इसका पाठ करेगा, बह सम्पूर्ण राज्योंका आधिपत्य प्राप्त कंर लेगा, इसमें संशय नहीं है । जो तीन महीनकी अवधितक प्रतिदिन भक्तिभावसे शुद्धचित्त हो इसका एक सौ दस बार पाठ करगा, उसको क्या-क्या नहीं मिल जायगा ? जो प्रात:काल उठकर इसका पाठ करेगा, उसे सम्पूर्ण तीर्थोमें स्नानका फल मिल जायगा तथा अन्तमें वह योगिदुर्लभ परमधाम गोलोकमें चला जायगा ॥

॥ इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीसौभरि-मांधाताके संवादमे यमुना कवच पुरा हुआ ॥



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Monday, June 8, 2009

श्रीनन्दनन्दन स्तोत्र Shree Nandanadan Strotra

श्रीनन्दनन्दन स्तोत्र

श्री मुनिरुवाच

बालं नवीनशतपत्रविशालनेत्रं बिम्बाधरं सजलमेघरुचिं मनोज्ञम् ।
मन्दस्मितं मधुरसुन्दरमन्दयानं श्रीनन्दनन्दमहं मनसां नमामि ॥१॥
मञ्जीरनूपुररणन्नवरत्नकाञ्जीश्रीहारकेसरिनखप्रतयन्त्नसंघम् ।
दृष्टयार्तिहारिमषिबिन्दुविराजमानं वन्दे कलिन्दतनुजातटबालकेलिम् ॥२॥
पुर्णेन्दुसुन्दरमुखोपरि कुञ्चिताग्रा: केशा नवीनघननीलनिभा: स्फरन्त: । 
राजन्त आनतशिर: कुमुदस्य यस्य नन्दामत्मजाय सबलाय नमो नमस्ते ॥३॥
श्रीनन्दनन्दस्तोत्रं प्रातरुत्थाय य: पठेत् ।
तत्रेत्रगोचरं याति सानन्दं नन्दनन्दन: ॥४॥

                                                        - गर्ग संहिता, गोलोक, २० । २४-२७


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Tuesday, May 26, 2009

Shree Govinda Strotam श्रीगोविन्दस्तोत्रम्

श्रीगोविन्दस्तोत्रम्
Govinda Strotam
This strotam is taken from Garg Samhita published by Gita Press
Book Code : 517
Title : Garg Sanhita
Author : Gita Press
Language : Hindi/Sanskrit




चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्षलक्षातेषु सुरभीरभिपालयन्यम् ।
लक्ष्मीसहस्त्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१॥
वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दरांगम् ।
कंदर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२॥
आलोलचन्द्रकलसद्वनमाल्यवंशीरत्नाङ्गदं प्रणयकेलिकलाविलासम् ।
श्यामं त्रिभङ्गललितं नियतप्रकाशं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥३॥
अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति ।
आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्य गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥४॥
अद्वैतमच्यतमननादिमनन्तरूपमाद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च ।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥५॥
पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्यो वायोरथापि मनसो मुनिपुंगवानाम् ।
सोsप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वे गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥६॥
एकोsप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटि यच्छक्तरस्ति जगदण्डचया यदन्य: ।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥७॥
यद्भावभावितधियो मनुजास्तथैव सम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषा: ।
सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितै: स्तुवन्ति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥८॥
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्ताभिर्य एव निजरूपयता कलाभि: ।
गोलिक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥९॥
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्त: सदैव हृदयsपि विलोकयन्ति ।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१०॥
रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद्भुवनेषु किंतु ।
कृष्ण: स्वयं समभवत् परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥११॥
यस्य प्रभा प्रभावतो जगदण्डकोटि-कोटिष्वशेवसुधादिविभूतिभिन्नम् ।
तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१२॥
माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूते त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना ।
सत्त्वावलम्बिपरसत्तवविशुद्धसत्त्वं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१३॥
आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनस्सु य: प्राणिनां प्रतिफलन् स्मरतामुपेत्य ।
लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्त्रं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१४॥
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य देवीमहेशहहरिधामसु तेषु तेषु च ।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१५॥
सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका छायेव यस्य यस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा ।
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१६॥
क्षीरं यथा दधिविकारविशेषयोगात् संजायते नहि तत: पृथगस्ति हेतो: ।
य: शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१७॥
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य दीपायेत विवृतहेतुसमानधर्मा ।
यस्तदृगेव च विष्णुतया विभाति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१८॥
य: कारणार्णवजले भजाति स्म योग-निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूप: ।
आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्तिं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥१९॥
यस्यैकनिश्श्वसितकालमथावलम्ब्य जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथा: ।
विष्णुर्महान स इस यस्य कलाविशेषो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२०॥
भास्वान् यथाश्मसकलेषु निजेषु तेज: स्वीयं कियत् प्रकटयत्यपि तद्वदत्र ।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२१॥
यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुभ्य-द्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराज: ।
विघ्नान् निहन्तुमलमस्य जगत्त्रयस्य गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२२॥
अग्निर्महीगगनमभ्बुमरुद्दिशश्च कालस्तथाssत्ममनसीति जगत्त्रयाणि ।
यस्माद् भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२३॥
यच्चक्षुरेव सविता सकलग्रहाणां राजा समस्तसुमूर्तिरषतेजा: ।
यस्जाज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्री गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२४॥
धर्मोsथ पापनिचय: श्रुतयस्तपांसी ब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवा: ।
यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावा गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२५॥
यस्त्विन्द्रगोपथवेन्द्रमहो स्वकर्म-बुद्धानुरूपफलभाजनमातनोति ।
कर्माणि निर्दहति किंतु च भक्तिभाजां गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२६॥
यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति-वात्सल्यमोहगरुगौरवसेव्यभावै: ।
संचिन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥२७॥



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